परिचय

• उपनाम : अल्हड़ बीकानेरी
• पूरा नाम : श्याम लाल शर्मा
• जन्म तिथि : 17 मई, सन् 1937
• जन्म स्थान : गांव-बीकानेर, जिला-रेवाड़ी , हरियाणा , भारत
• शब्द यात्रा : 1962 से गीत-ग़ज़ल में पदार्पण। 1967 से हास्य -व्यंग्य कविताओं का
देश-विदेश में सस्वर काव्य-पाठ। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित।
लगभग सभी प्रमुख हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
• फिल्म-यात्रा : 1986 में हरियाणवी फीचर फिल्म छोटी साली के गीत कहानी का लेखन तथा
निर्माण कार्य।
• पुरस्कार व सम्मान यात्रा:
1. राष्ट्रपति द्वारा अभिनन्दन : सन् 1996
2. “हरियाणा गौरव” सम्मान, हरियाणा सरकार : सन् 2004
3. काका हाथरसी सम्मान, दिल्ली सरकार : सन् 2000
4. अट् टहास शिखर सम्मान, लखनऊ : सन् 2007
5. “हास्य – रत्न” काका हाथरसी सम्मान : सन् 1987
6. “ठिठोली” पुरस्कार, दिल्ली : सन् 1981
7. आचार्य क्षेमचन्द्र सुमन पुरस्कार, दिल्ली : सन् 2005
8. “व्यंग्य श्री” पुरस्कार, बदायूं : सन् 2004
9. टेपा पुरस्कार, उज्जैन : सन् 2004
10. भारती रत्न सम्मान, दिल्ली : सन् 2001
11. मानस पुरस्कार, कानपुर : सन् 2000
12. “काव्य गौरव” सम्मान अखिल भरतीय कवि सभा दिल्ली : सन् 1998
13. यथासंभव सम्मान, उज्जैन : सन् 1997
14. अखिल भरतीय नागरिक परिषद सम्मान : सन् 1993
15. लायंस क्लब सम्मान, दिल्ली : सन् 1982

• प्रकाशन-यात्रा :
1. भज प्यारे तू सीताराम
2. घाट-घाट घूमे
3. अभी हंसता हूँ
4. अब तो आंसू पोंछ
5. भैंसा पीवे सोमरस
6. ठाठ ग़ज़ल के
7. रेत पर जहाज़
8. अनछुए हाथ
9. खोल न देना द्वार
10. जय “मैडम” की बोल रे
11. हर हाल में खुश हैं
12. मन मस्त हुआ

छन्द, शिल्प और कथ्य का उत्कृष्ट सामंजस्य
बातचीत से लेकर कपड़े पहनने में नफासत, यहां तक कि किसी भी कार्यक्रम में जाने से पूर्व अपने बनाव श्रृंगार के प्रति अति सतर्क और कार्यक्रम स्थल पर पहुंचने से पूर्व अपने बालों को संवार मंच के एक कोने में आकर चुपचाप बैठ जाना, यह थी देश के सुप्रसिद्ध हास्य कवि अल्हड़ बीकानेरी के व्यक्तित्व की विशेषता।
हरियाणा के रेवाडी जिले के बीकानेर गांव में 17 मई सन् 1937 में जन्मे अल्हड़ बीकानेरी का नाम उनके माता पिता ने श्याम लाल रखा। बकौल अल्हड़ जी, उनके जन्म से पहले तीन भाई और हुए थे किन्तु वे अपने बाल्यकाल में ही काल के ग्रास में समा गये। आखिरकार उनकी मां श्रीमती पार्वती देवी ने श्याम बाबा खाटू वाले से मन्नत मांगी की यदि उनका अगला लड़का हुआ तो उसका नाम श्याम और लड़की हुई तो उसका नाम श्यामा रखेंगें। अल्हड़ जी भी स्वयं को हमेशा श्याम बाबा का प्रसाद ही मानते रहे।
सन् 1962 में श्री श्याम लाल शर्मा ने माहिर बीकानेरी उपनाम से उर्दू की गजल विधा से अपनी लेखनी की शुरूआत की और सन् 1967 तक आते आते वे ग़ज़ल को छोड़ हास्य के मैदान में अल्हड़ बीकानेरी के उपनाम से हाथ अजमाने के लिए पूरे जोर शोर से उतर पड़े। ग़ज़ल से हास्य की ओर मुड़ने का किस्सा भी बड़ा मजेदार है। माहिर बीकानेरी ने हिन्दी के स्वनामधन्य कवि श्री गोपाल दास नीरज के सर्वाघिक लोकप्रिय गीत “करवां गुजर गया गुबार देखते रहे” की पैरोडी लिखी और उक्त पैरोडी को उन्होंने कवयित्री सुषमा पाल के लड्डू घाटी स्थित निवास पर आयोजित गोष्ठी में सुनाया तो वह बहुत सराही गई और इसके बाद ही उन्हें हिंदी मंचों पर भी बुलाया जाने लगा। अल्हड़ जी से उम्र में कम उन्हीं के साथ डाक – तार विभाग में काम करने वाले उनके उस्ताद प्रसिद्ध शायर रज़ा अमरोही जी ने उन्हे सलाह दी कि मियां ये ग़ज़ल – व़ज़ल का चक्कर छोड़ो और पूरी तरह हास्य में ही जम जाओ और इसी के साथ श्री रजा अमरोही ने उनका नया नामकरण अल्हड़ बीकानेरी कर दिया। अब श्याम लाल, माहिर बीकानेरी से अल्हड़ बीकानेरी हो चुके थे और उन्होंने स्वयं को भी हिन्दी के मंचों के लिए समर्पित कर दिया। यह अलग बात है कि अल्हड़ जी ने हास्य को तो पूरी तरह अपना लिया लेकिन ग़ज़ल भी उनके हृदय के एक कोमल कोने में बसी थी।
अल्हड़ जी की सबसे बड़ी विशेषता शिष्ट हास्य को छंद में लिखना और मंचों पर उसे गाकर प्रस्तुत करना था। कहा जाये तो हास्य को गेय बनाने की परम्परा की शुरूआत करने वाले अल्हड़ बीकानेरी ही थे। यूं तो उन्होंने हास्य में पैरोडी के अतिरिक्त हास्य कव्वाली, शास्त्रीय संगीत में हास्यगीत, हास्य आरती, हास्य लोक गीत यहां तक कि पत्नी से लेकर देश के अधिकांश नेता उनके हास्य का विषय रहे हैं। हरियाणवी कविता अनपढ़ धन्नों अक्सर मंचों पर सुनाते भी थे और यह कविता श्रोताओं को भी सूब भाती थी। अल्हड़ जी उर्दू भाषा न तो लिख सकते थे न ही पढ़ सकते थे। इसके बावजूद ग़ज़लों के अलावा नज्में भी उन्होंने खूब कही।
अनेकों पुरस्कार तथा सम्मान प्राप्त करने वाले अल्हड जी विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे लेकिन वे कवि सम्मेलन का मंच हो या कहीं भी झुकते नहीं थे। चालीस वर्षों से अधिक अपनी काव्य यात्रा में
15 पुस्तकें प्रकाशित होने के बाद भी अन्तिम समय तक वे काव्य रचना में व्यस्त थे। एक-एक कविता को बार-बार लिखना फाड़ देना और जब तक सन्तुष्ट न होते, न तो मंच पर पढ़ते थे और न ही प्रकाशित करने के लिए भेजते थे। आखिरी पुस्तक “मन मस्त हुआ” के हर छंद को उन्होनें करीब बीस-बीस बार संशोधित किया और हर छंद को फोन पर मित्रों को सुना कर सुझाव मांगे।

पुस्तक ‘अभी हंसता हूं’ की भूमिका में उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है –
‘हास्य-ऋषि स्वं. काका हाथरसी जी कही फुलझड़ीयों का जादू उन दिनो सिर चढ कर बोल रहा था। मैंने भी गम्भीर गीतों और ग़जलों को विराम देते हुए, कह ‘अल्हड़ कविराय’ की शैली में सैंकड़ों फुलझड़ियां लिख मारीं। अन्ततः देश की सुप्रतिष्ठित पत्रिका धर्मयुग (दिनांक 23.6.1968) में ‘सुनियोजित परिवार’ शीर्षक से मेरा जो मुक्तक छपा वह इस प्रकार था –
कोई कोठी है न कोई प्लाट है
दोस्तो अपना निराला ठाठ है
एक बीबी तीन बच्चे और हम
पांच प्राणी एक टूटी खाट है’
इसके बाद हास्य रस में अल्हड़ बीकानेरी जी की जो काव्य-यात्रा शुरू हुई वह आज तक जारी है। अल्हड़ बीकानेरी जी की कविताओं से गुजरते समय आप महसूस करेंगे कि आप एक आम – आदमी से साक्षात्कार कर रहे हैं। उनकी कविताएं आप आदमी की जिंदगी का आइना हैं। अल्हड़ बीकानेरी जी की अपनी जिन्दगी के अनेक शब्द चित्र आपको उनकी कविताओं में रवानी के साथ बहते हुंए नजर जायेगे।

अल्हड़ जी को निजी तौर पर जानना भी अत्यंत ही आवश्यक है। 17 मई सन् 1937 को हरियाणा के बीकानेर गांव में जन्में अल्हड़ बीकानेरी स्वीकारते हैं कि बचपन से मेरा मन संगीत, साहित्य और नाटकों के मंचन में रमने लगा था, मगर मेरे पिता जी मुझ इकलौते पुत्र को ठोक-पीटकर इंजीनियर बनाने पर तुले हुए थे। अप्रैल 1953 के प्रथम सप्ताह मैट्रिक मे प्रथम स्थान तथा छात्रवृति प्राप्त करके जब मैंने अहीर कॉलेज रेवाड़ी (हरियाणा) में प्रवेश मिला तो इण्टर सांइंस के तीन विषय – फिजिक्स ट्रिगनोट्री और डिफ्रेशियल केलकुलस, राहु, केतु और शनि की तरह मेरी खोपड़ी पर सवार हो गये। अप्रैल 1956 में डाक-तार ट्रेनिंग सैंटर, सहारनपुर पहुंचते ही अचानक मलेरिया और टायफाईड का भयंकर आक्रमण हो गया। जिसकी वजह से मरणासन्न अवस्था में इर्विन अस्पताल, नई दिल्ली की सामयिक चिकित्सा से पुनर्जन्म प्राप्त हुआ। यह दौर अल्हड़ बीकानेरी जी के लिये बहुत सारे संकट एक साथ लेकर आया था। गर्दिशों की ये हालत थी कि वे थमने का नाम ही नहीं ले रहीं थी। वे बताते हैं जनवरी 1958 से जून 1962 तक, क्रूर काल मेरे छोटे पुत्र, पिता जी, प्रथम पत्नी, नवजात तीसरा पुत्र तथा सगे भानजे को एक-एक करके निगलता चला गया। ऐसी संकट की स्थितियों के बावजूद अल्हड़ बीकानेरी जी के भीतर बैठे रचनाकर ने उन्हें लगातार हिम्मत प्रदान की ।
इसके बाद आया सन् 1962, बस यहीं से अल्हड़ बीकानेरी जी की जिन्दगी और कविता की दिशा बदलनी प्रारम्भ हुई। जनवरी 1968 की एक शाम उनके एक मित्र श्री कृष्ण स्वरूप अनुचर उन्हें
श्री गोपाल प्रसाद व्यास जी की बैठक में ले गये। व्यास जी का निवास उन दिनों भागीरथ पैलेस में था। अल्हड़ जी के कुछ छक्के सुनने के बाद उन्होंने कहा कि वे पहले उनका सम्पूर्ण साहित्य पढ़ें फिर नया गढें और तभी दुबारा मकान की सीढियां चढें। जांचने-परखने के उपरान्त नवम्बर 1970 में
श्रद्धेय व्यास जी उन्हें कलकत्ता की यात्रा पर ले गये तथा विधिवत अपना शिष्य ग्रहण कर लिया ,
23 जनवरी 1971 को उन्होंने लालकिला कवि -सम्मेलन में प्रथम बार काव्य-पाठ किया। उसके बाद शुरू हूई अल्हड़ जी की काव्य – यात्रा निरंतर नये – नये मानदण्ड स्थापित कर रही है।
हिन्दी और उर्दू के शब्दकोश आज भी उनके लेखन कक्ष में उनके तकिये के दायी ओर बहुत सलीके से रखे हुए नज़र जाते हैं । जब तक वे किसी भी शब्द और उसके प्रयोग को लेकर, अर्थ की दृष्टि से पूरी तरह संतुष्ट न हो जाए तब तक उनके लिए आगे एक पंक्ति लिख पाना भी अत्यंत ही कठिन है। इसलिए उनकी कविताएं आज भी अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं। छंद उनके लिए मां सरस्वती के सम्मुख समर्पित किये जाने वाल पवित्र पुष्पों के समान है। ऐसे पवित्र पुष्प, जिनके साथ की गयी जरा सी छेड़छाड़ भी उनकी पूजा में विध्न डालती है। जिन सामाजिक रूढियों, आर्थिक दुश्चिन्ताओं, राजनीतिक विडम्बनाओं, प्रशासनिक विसंगतियों तथा क्षणभंगुर जीवन की विसंगतियों ने उनके अंतर्मन को भीतर तक कचोटा है, वे उनकी कविताओं का कच्चा चिट्ठा हैं।
अल्हड़ बीकानेरी जी की अधिकांश कविताओं की पृष्ठभूमि में भजनों और धार्मिक रचनाओं का जो प्रतिबिंब आपको नजर आयेगा उसका सन्दर्भ भी उनके निजी जीवन से जुडा़ हुआ है। उनके पिता
श्री छुट्टन लाल शर्मा का आकस्मिक निधन 14 अगस्त सन् 1959 को हुआ था। वे सचल सम्पत्ति के रूप में एक हारमोनियम ,सचित्र रामचरितमानस, गीता-मंथन, गांधी-वाणी, बुद्ध वाणी, तमिल वेद, जीवन-सूत्र जैसे ग्रन्थ तथा श्रद्धेय वियोगी हरि द्वारा संपादित भजनों के चार गुटके विशेष रूप से उनके लिये छोड़ गये। फरवरी 1970 में अल्हड़ भी भजनों के उक गुटके का ममन कर रहे थे। एस गुटके में मुसलमान भक्त कवियों की वाणी संकलित थी। अचानक उस भजन संग्रह में नजीर अकबराबादी की वाणी – पूरे हैं वो ही मर्द जो हर हाल में खुश हैं, पढकर उन्हें ऐसा लगा जैसे उन्हें मुंह मांगी मुराद मिल गयी हो।
साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका में उनकी जिस कविता के चार चरण पहली बार प्रकाशित हुए वह कविता उपरोक्त पंक्ति पर ही आधारित थी जो बद में बढ़ते-बढ़ते अठारह चरणों तक जा पहुंची। इसके बाद ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में उनकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुई। अल्हड़ जी कहते हैं कि मेरी इन तमाम रचनाओं की गत्यात्मकता का पूरा श्रेय पत्रिका के तत्कालीन संपादक और देश के स्वनामधन्य साहित्यकार श्री मनोहर श्याम जोशी जी को जाता है। मात्र दो वर्षों में प्रकाशित कविताओं ने अल्हड़ जी को अखिल भारतीय स्तर का कवि बना दिया। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित होने वाली इन कविताओं में आखिर क्या खास था। प्रस्तुत पंक्तियों को पढकर आप स्वयं इसका अनुमान लगा सकते हैं।

होटल से निकाला तो किसी पार्क में पंहुचे
लाइट से भगाया तो कहीं डार्क में पहुंचे
एयर से उड़ाया तो वो न्यूयार्क में पहुंचे
पैरिस में, शिकागो में, वो डेनमार्क में पहुंचे
करनाल में पटका तो वो करनाल में खुश हैं
पूरे है वो ही मर्द जो हर हाल में खुश हैं
जंगल में मिला ठूंठ बडे़ प्यार से चूमा
खेतों में मिला ऊंट बडे़ प्यार से चूमा
शादी में मिला सूट बडे़ प्यार से चूमा
गौने में मिला बूट बडे़ प्यार से चूमा
रूमाल जो मिला तो उसी रूमाल में खुश हैं
पूरे हैं वो ही मर्द है जो हर हाल में खुश हैं

अल्हड़ बीकानेरी जी की यह कविता सन् 1970 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुई । इस कविता ने पूरे भारत वर्ष में जो घूम मचाई उसे याद करके अल्हड़ जी आज भी हर्षित होते थे । हर मुसीबत में हौसला रखने का जो संदेश इस कविता में प्रतिपादित होता हैं वह एक जीवन दृष्टि सृजित करता है। अनेक बार स्वयं भी मानसिक संघर्ष की स्थितियों में इन पंक्तियों से एक सुखद अहसास का अनुभव करके सहजता के साथ अपने संघर्ष पर विजय प्राप्त की है।
सन् 1970 और उसके आस-पास का समय अल्हड़ जी के लेखन का स्वर्णिम दौर था। उस समय पर लिखी गयी उनकी कविताओं के तेवर को अल्हड़ जी के मूल तेवर की कविताएं कहा जा सकता है। यदि आपका उनसे परिचय नहीं हैं और सामने वाला कोई अन्य व्यक्ति आपको ये न बताये कि आप देश के अत्यंत ही लोकप्रिय हास्य कवि श्री अल्हड़ बीकानेरी हैं तो आप उनके बारे में अनुमान ही नहीं लगा पायेंगे। अल्हड़ जी सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी थे। आम – आदमी का दर्द, मंच का माहौल, दफ्तर की विसंगतियां और सामाजिक विसंगतिया उनकी लेखनी के प्रमुख विषय हैं। उन्होंने आध्यात्मिक कविताओं की भी रचना की थी ।
रचनाकार जैसा महसूस करता है अपनी रचनाओं में उसे वैसा ही लिखता भी है। उस दौर में अल्हड़ जी स्वयं भी एक आम आदमी और उसकी जिन्दगी से जुड़ी समस्याओं को बहुत ही नज़दीकी के साथ महसूस कर रहे थे। इसलिए उसके बिम्ब उनकी कविताओं में बार-बार प्रस्तुत हुए हैं बल्कि वे समस्याओं को ठहाकों के साथ हवा में उड़ा देने वाले रचनाकार थे वे अपनी मस्ती में मस्त थे । एक ऐसा फक्कड़पन उनके पास है जो किसी सिद्ध सन्त पुरूष के पास भी मुश्किल से ही मिल पाता है, वे इस भौतिकवादी युग के तमाम फंदों से मुक्त, एक योगी की भांति अपने कर्म में संलग्न रहकर एक दर्शक के रूप में सारी स्थितियों की समालोचना करते थे।
अल्हड़ बीकानेरी जी एक सिद्ध कवि थे। हिन्दी छन्दों और उर्दू की मिलती-जुलती बहरों के भेद का दुर्लभ खज़ाना उनके पास था। उस खज़ाने को और अधिक समृद्ध करने के लिए वे सदा अध्ययनशील रहे थे। भाषा पर उनका भरपूर अधिकार था । किस स्थान पर कौन सा शब्द रखने से अर्थ अपनी चरम स्थितियों के साथ उपस्थित होगा, उस बिन्दु तक पहुंचने के लिए वे निरन्तर चिन्तन प्रक्रिया में सक्रिय रहते थे।
उनकी कविताओं से प्रभावित होकर श्री निर्भय हाथरसी जी ने उनसे आटोग्राफ लिये थे।
पद्म श्री बरसाने लाल चतुर्वेदी जी ने अपनी डी.लिट. में उनकी हास्य कविताओं का उल्लेख किया है।लूहारू के नव़ाब की अध्यक्षता में जब उन्होंने अपनी कविताओं का पाठ किया तो उन्हें सुनने के बाद नव़ाब साहब ने कहा था कि हास्य-रस की कविताएं हो या तो अल्हड़ जी जैसी हों।
हास्य-ऋषि स्व.श्री काका हाथरसी जी की अल्हड़ जी के लिए एक फुलझड़ी!!
अल्हड़ जी का स्वर मधुर, गोरा-चिट्टा चाम।
‘श्यामलाल’ क्यों रख दिया, घरवालों ने नाम।
घर वालों ने नाम, ‘शकीला’ पीटे ताली।
हमको दे दो, मूँगफली वाली कव्वाली।
इसे मंच पर गाने में जो होगी इनकम।
आधी तुम ले लेना, आधी ले लेंगे हम।

विसंगतियो का यह ऐसा दौर है जिसमें सैंकडों ऐसे अकवि महाकवि होने का भ्रम पाल हुए घूम रहे हैं, जिन्हें तो कविता में कथ्य के महत्व का ही कुछ पता है और न ही छन्द के विधान की जानकारी है। ऐसे दौर के बीच अल्हड़ बीकानेरी एक समर्थ शब्द ऋषि के रूप में आज भी हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवा करे हैं। शब्द को उसकी पूरी सामर्थ्य के साथ कविता में स्थापित करने की जैसी कला उनके पास है वैसी अन्यत्र उपलब्ध नहीं दीखती। अल्हड़ बीकानेरी के पास ऐसी प्रतिभा थी जो उन्हें एक तरफ तो ग़जलों के उस्ताद के रूप में स्थापित करती है और वही दूसरी तरह हास्य-रस में देश के सर्वाधिक सिद्ध रचनाकार के रूप में भी मान्यता दिलवाती है।
अल्हड़ जी को हास्य कवि कहना उनका सम्पूर्ण मूल्यांकन करना नहीं होगा। वे एक ऐसे छंदशिल्पी थे, जो छंद शास्त्र में पूरी तरह माहिर थे। श्याम लाल शर्मा से माहिर बीकानेरी ,
माहिर बीकानेरी से अल्हड़ बीकानेरी और “हास्य-रत्न”,“व्यंग्य श्री”,“काव्य गौरव” की यात्रा,हिन्दी के आकाश पर चमक रहे इस कोमल हृदय शायर, हास्य कवि तथा छंद शिल्पी अल्हड़ बीकानेरी नाम के नक्षत्र को हिन्दी जगत का शत्-शत् नमन!
हरियाणा राज्य साहित्य अकादमी ने सुप्रसिद्ध हास्य कवि स्वं. श्री ओमप्रकाश आदित्य और अल्हड़ बीकानेरी के संयुक्त नाम “आदित्य-अल्हड़ सम्मान” से 100,000 रुपये का वार्षिक पुरस्कार शुरू किया है।
अल्हड़ जी के परिवार और पारिवारिक मित्रों ने, जिनमें सुप्रसिद्ध हास्य कवि श्री प्रवीण शुक्ल जी मुख्य हैं
अल्हड़ जी नाम पर वार्षिक “अल्हड़ बीकानेरी हास्य – रत्न” पुरस्कार शुरू किया है।
हास्य कवि श्री प्रदीप चौबे जी को 19 अप्रैल सन् 2015 को, प्रथम “अल्हड़ बीकानेरी हास्य – रत्न पुरस्कार” से हिन्दी भवन,दिल्ली में सम्मानित किया गया।

इस वेबसाइट को बनाने में सहयोग करने के लिए अल्हड़ जी के सभी प्रशंसकों,मित्रों विशेष रूप से सुप्रसिद्ध हास्य कवि श्री अशोक चक्रधर जी, श्री प्रवीण शुक्ल जी, श्रीमती सविता असीम जी,
श्री चिराग जैन जी , स्व.श्री पुरूषोत्तम वज्र जी और अल्हड़ जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री अशोक शर्मा जी, जिनके सहयोग के बिना यह कार्य असंभव था, के आभारी हैं ।
अल्हड़ जी से संबंधित यादगार क्षण व मंच के संस्मरण सभी प्रशंसकों से अपेक्षित व स्वागतीय हैं।